श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन और उनके कृत्यों का विश्लेषण करें तो वह ना केवल अंग्रेजों की तरफ झुकाव वाला बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की राह में गतिरोध खडा करने वाला दिखाई देता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी जिन्ना की तरह अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से की थी। वह कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर पहली बार बंगाल प्रांतीय परिषद के सदस्य चुने गये थे। उसके बाद वह आगे चलकर 1939 में सावरकर के प्रभाव में आकर हिंदू महासभा के साथ जुड गये। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर को भाजपा और संघ के नेता महान राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करते हैं। परंतु यदि भारतीय स्वतंत्रता संगाम में उनकी भूमिका को देखें तो किसी भी तरह से जिन्ना से कम विवादास्पद नही थी बल्कि कईं अर्थों में वह जिन्ना से भी विवादास्पद और अंग्रेज परस्ती की दिखाई पड़ती है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का उन्होंने जमकर विरोध किया यहां तक बंगाल के गवर्नर जाॅन हरबर्ट को 26 जुलाई 1942 को एक पत्र लिखा और उसमें गांधी और कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए उसे विफल बनाने के लिए भरपूर सहयोग देने का वादा भी किया था। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा था कि आपके मंत्री हाने के नाते हम भारत छोड़ों आंदोलन को विफल करने के लिए पूरा सक्रिय सहयोग करेंगे।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल इतने पर ही नही ठहरे बल्कि जब गांधी और कांग्रेस करो या मरो के नारे के तहत अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन चला रहे थे उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी सावरकर के साथ मिलकर अंग्रेजों का सहयोग कर रहे थे। कांग्रेस और गांधी ने अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा का विरोध किया तो वहीं सावरकर पूरे भारत में घूमकर अंग्रेजी फौज में भारतीयों को भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे थे। जाहिर है बंगाल के वित्तमंत्री और भाजपा और संघ के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसमें शामिल थे। वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भारत छोड़ों आंदोलन के विरोध का कारण सावरकर द्वारा सभी हिंदू महासभा सदस्यों को लिखे गये पत्र का जवाब था जिसमें उन्होंने गांधी द्वारा पद त्याग का विरोध करते हुए लिखा था कि अपने पद पर बने रहो। सावरकार का यह प्रसिद्ध पत्र “स्टिक टू दि पोस्ट” नाम से मशहूर है।
इस से भी शर्मनाक स्थिति वह थी कि जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस देश को आजाद करवाने के लिए आजाद हिंद फौज के साथ जान की बाजी लगा रहे थे तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग के नेतृत्व में बंगाल में बनी सरकार के उप प्रधानमंत्री (उप मुख्यमंत्री) थे। वहीं दूसरी तरफ नेताजी देश को नारा दे रहे थे कि तुम मुझे खुन दो और मैं तुम्हे आजादी दूंगा तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और संघ-हिंदू महासभा मिलकर ब्रिटिश फौज के लिए भर्ती कैंप चला रहे थे।
इसके अलावा जिन्ना, सावरकर और श्यामा प्रसाद की दोस्ती और सहयोग का सबसे अनौखा उदाहरण 1939 में दिखाई देता है। अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा पर 1939 में गांधी के आहवान पर कांग्रेस के विधायकों ओर मन्त्रियों ने अंतरिम सरकार के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया तो जिन्ना ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए इसे मुक्ति का दिन बताया और इस मुक्ति के दिन में मुखर्जी ने मंत्री पद छोडने की अपेक्षा कांग्रेस छोड़कर जिन्ना की खुशी में शामिल होकर मुस्लिम लीग सरकार में साझेदारी करना बेहतर माना था। ध्यान रहे कि जहां श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस मुक्ति के दिन का समारोह मनाते हुए मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हो रहे थे तो वहीं अब्दुर रहमान सिदद्की नामक एक ऐसे लीगी मुस्लिम नेता भी थे जिन्होंने जिन्ना की घोषण का विरोध करते हुए लीग की वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया था और जिन्ना की घोषणा को राष्ट्रीय गरिमा का अपमान और अंग्रेजों की चाकरी बताया था। परंतु राष्ट्रवादी नेता मुखर्जी और सावरकर को इसी चाकरी में राष्ट्रवाद दिखाई पड़ रहा था।