कर्नाटक चुनाव हो गए। 2600 से ज्यादा उम्मीदवारों की किस्मत EVM में कैद हो गई और अब सिर्फ कर्नाटक ही नहीं, पूरे देश को इन चुनावों के नतीजों का इंतजार है। वैसे तो 15 मई को होने वाली मतगणना के बाद ही पता चलेगा कि ऊंट किस करवट बैठा है, लेकिन कर्नाटक वासियों और राजनीतिक-चुनावी विश्लेषकों से बातचीत से जो निचोड़ निकल रहा है, वह यह है कि इस चुनाव में कांग्रेस का पलड़ा बीजेपी के मुकाबले भारी रहा है। लेकिन, कुछ विश्लेषक यह भी मानते हैं कि कांग्रेस नंबर एक पार्टी बनकर तो उभरेगी, लेकिन पूर्ण बहुमत से दूर रहेगी। दरअसल वे यह कह रहे हैं कि इन चुनावों में किसी को बहुमत नहीं मिलेगा। ऐसी सूरत में देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगी। मगर सबका यही कहना है कि देवेगौड़ा की डील अमित शाह के साथ हो चुकी है, और जरूरत पड़ने पर वे बीजेपी की ही मदद करेंगे लेकिन JDS के प्रवक्ता और देवगौड़ा ने मीडिया से बातचीत में कांग्रेस के तरफ अपना झुकाव बताया है और कहा है कि फल कांग्रेस को ही करनी पड़ेगी।
सबसे पहली बात यह कि इस चुनाव से साबित हो गया कि मोदी का जादू अब टूट चुका है। 2018 के मोदी वह नहीं रहे जो 2014 में नजर आते थे। 2014 में तो हालत यह थी कि अगर वे पत्थर भी छू लें, तो सोना हो जाए। वह लोगों के खाते में 15 लाख देने की बात करते थे, और लोग आंख बंद करके उन पर विश्वास कर रहे थे। वह हर साल दो करोड़ नौकरियां देना का ऐलान करते, तो युवा खुशी से झूमने लगते थे। मोदी स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन और भी जाने क्या-क्या सपने बेचते, और देश के लोग इस सपने में झूम-झूम उठते मोदी को अपनी भाषण कला पर बड़ा गर्व हुआ करता था, और भक्त भी वाह-वाह करते नहीं थकते थे। इसमें संदेह नहीं कि हाथ घुमा-घुमाकर वह शब्दों का जादू चला लेते हैं। लेकिन कर्नाटक उनका हर भाषण झूठे तथ्य और विरोधियों पर हमलों के पुलिंदे के अलावा कुछ दिखा ही नहीं। जब तक मोदी की साख रही, उनके भाषणों का जादू भी चलता रहा, लेकिन अब साख भी जा रही है, और साथ ही जा रहा है भाषणों का जादू।
2018 में राहुल गांधी एक बेदाग चेहरे के तौर पर सामने आए हैं। वह एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जो सच्ची और सीधी बात करता है। मोदी रेडियो पर मन की बात करते हैं, लेकिन राहुल गांधी के भाषणों में दिल की बात होती है। राहुल खुले दिल से और खुलेआम संघ और बीजेपी की आलोचना करते हैं। देश में आज जो माहौल है, उसमें खुलेआम संघ की आलोचना करने की हिम्मत राहुल गांधी ने दिखाई है, कि यह लड़ाई विचारधारा की है, जिसमें क तरफ संघ की संकीर्ण विचारधारा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस की सेक्युलर विचारधारा। और अपने वैचारिक विरोधी और प्रतिद्वंदी को खुलेआम चुनौती देने की हिम्मत भी अकेले राहुल गांधी ने ही दिखाई है।पुरानी कहावत है कि अगर नेता ही हिम्मत वाला न हो तो, वह नेता कैसा? संघ और बीजेपी की विचारधारा पर तीखे हमले करते हुए खुलेआम उन्हें चुनौती देकर राहुल गांधी ने अपनी दादी इंदिरा गांधी के साहस की याद दिला दी है।
2018 के राहुल गांधी भी 2014 के राहुल गांधी नहीं रहे। वह एक परिपक्व और समझदार नेता के तौर पर उभरे। उन्हें भाषण देना भी आ गया है। उनकी राजनीतिक सूझबूझ से आम देशवासी प्रभावित हो रहे हैं। अब राहुल गांधी घबराते नहीं हैं। बड़े से बड़े राजनीतिक मुद्दे को वह आसानी से बखूबी हल कर लेते हैं। बेंग्लुरु में 10 मई को हुई उनकी प्रेस कांफ्रेंस इसकी मिसाल है कि वे मुश्किल स्थितियों का सामना भी खुलकर करते हैं। नतीजे 15 मई को आ जाएंगे, इस दौरान कयासों का दौर जारी रहेगा, लेकिन बीते करीब दो पखवाड़े में मोदी का ऊंट राहुल के पहाड़ के नीचे आता दिखा। तो क्या 2019 में सेक्युलर धड़े के नेता राहुल गांधी होगे।