भारतीय राजनीति और छोटे दल

भाग-1 पराधीन भारत में दलों की भूमिका
पराधीन भारत में 3 प्रमुख दल भारतीय राजनीति में शामिल रहे थे!
कांग्रेस, हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग

इतिहास के गहन अध्ययन, पराधीन भारत के उपलब्ध राजनयिक दस्तावेजों और विभिन्न इतिहासकारों एवं बुद्धिजीवियों के वक्तव्यों के विश्लेषण से हमारा निष्कर्ष है कि

कांग्रेस की स्थापना 1857 के गदर के बाद, उस तरह की किसी घटना की पुनर्रावृति रोकने के उद्देश्य से की गई थी!

जिसके तहत भारतीयों को एक मंच प्रदान किया गया था कि वो अपनी बात ब्रिटिश सत्ता के समक्ष रख सकें!
उनकी बात मानने या ना मानने का अधिकार ब्रिटिशों के पास सुरक्षित था!

शुरुआत में कांग्रेस ब्रिटिशों के उम्मीद के अनुसार ही कार्य करती रही!
ब्रिटिश सत्ता ने कई सामाजिक व शैक्षिक सुधार भी कांग्रेस के अनुरोध पर किए!

कांग्रेस के जरिए ब्रिटिश सत्ता से सीधे संवाद की सुविधा के कारण बहुत जल्द कांग्रेस से बड़े बड़े विद्वान व राष्ट्रवादी व्यक्ति जुड़ने लगे!
शीघ्र ही कांग्रेस 2 धड़ों में बंट गई
नरम दल और गरम दल
नरम दल जहां अनुनय विनय से ही अपनी बात रखने के पक्ष में था, वहीं गरम दल हक के लिए लड़ने और छीनने के पक्ष में था!

इससे पहले की कांग्रेस इन 2 विचारधाराओं के बीच बंटकर तबाह होती
मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के खिलाफ लड़ाई जीत कर वापस भारत आ गए!

गांधी न सिर्फ कांग्रेस के आजादी के आंदोलन से जुड़े, वरन् 2 विचारधाराओं के बीच पिस रही कांग्रेस के लिए मध्यमार्ग निकालकर उसे एक किया!

वो मार्ग था आजादी के लड़ेंगे, अपना हक छीनेंगे जरूर, लेकिन ये लड़ाई अहिंसक होगी
गांधी की दृढ़ता एवं संकल्प शक्ति के आगे समस्त कांग्रेस जन व आम जनता नतमस्तक हो गई!

तदोपरान्त लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर कांग्रेस को नवजीवन देने वाले गांधी की विचारधारा को कांग्रेस ने अपनाया!
तब से लेकर आज तक कांग्रेस की विचारधारा, कांग्रेस की आत्मा गांधी हैं!

गांधी के आगमन और उनके नेतृत्व में भारतीय जनमानस के जेहन में कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज़ी हुकूमत चिंतित हो गई!

उसे दौरान पराधीन भारत के राजनैतिक केंद्र बंगाल को कमजोर करने के लिए बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव ब्रिटिश संसद ने पारित किया!

जिसका कड़ा विरोध कांग्रेस के नेतृत्व में किया गया! जिसे बंग-भंग आंदोलन के नाम से जाना जाता है!
अंतत: ब्रिटेन को बंगाल विभाजन का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा!

तब ब्रिटिशों ने कांग्रेस के इस एकदलीय राजनीति के वर्चस्व को ख़त्म करने और भारत की धर्मभीरू जनता को तोड़ने के लिए धर्म और राजनीति के मेल का सहारा लिया!
अंग्रेजों ने भारत में 2 अन्य संस्थानों के गठन के लिए परोक्ष रुप से आर्थिक, राजनैतिक एवं समाजिक मदद करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/RSS एवं मुस्लिम लीग का निर्माण कराया!

जहां मुस्लिम लीग मुसलमानों के हितों की बात करते हुए, खुद को मुसलमानों के लिए राजनीतिक मंच बताकर, मुसलमानों को अपने पीछे लामबंद करने में लग गई!
वहीं आरएसएस ने अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि बनाते हुए अपने सहयोगी संगठन हिंदू महासभा का गठन करके उसके माध्यम से राजनीति करते हुए हिंदुओं को कट्टरतापूर्वक लामबंद करने का कार्य किया!

हालांकि हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने मिलकर पराधीन भारत में कई मौकों पर गठबंधन सरकार चलाई!

लेकिन उदारता के कारण कहिए या स्वतंत्रता आंदोलन में व्यस्तता के कारण, कांग्रेस समय रहते इस पर ध्यान नहीं दे पाई!

मोहम्मद अली जिन्ना के कांग्रेस से मुस्लिम लीग में शामिल होने के साथ ही, मुस्लिम लीग भी कांग्रेस की तरह पूर्ण स्वराज की पक्षधर हो गई!
सिर्फ आरएसएस ही आजादी के बजाय औपनिवेशिक लोकतंत्र का समर्थक बना रहा!

दूसरे विश्वयुद्ध में भले ही ब्रिटेन मित्र राष्ट्रों के साथ विजयी रहा हो, लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद वैश्विक राजनीति में एक नई महाशक्ति अमेरिका का उदय हुआ और ब्रिटेन समेत मित्रराष्ट्रों की शक्ति और वर्चस्व का क्षरण हुआ!

जिसके परिणाम स्वरूप भारत जैसे विशाल देश में जन साधरण तक के पराधीनता के विरुद्ध खड़े हो जाने के बाद, भारत को उपनिवेश बनाए रखना नामुमकिन हो गया!

भारत में लगभग 300 वर्षों के करीब-करीब एकक्षत्र राज्य के दौरान भारतीयों की क्षमता से भलीभांति परीचित हो चुके अंग्रेजों ने जाते-जाते भी ऐसी साजिश रची की आने वाले सदियों में भी भारत उनके लिए आर्थिक, समाजिक, राजनैतिक चुनौती न बन सके!

अंग्रेज़ों ने आरएसएस और हिंदू महासभा के माध्यम से भारतीय हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा कर दिया!
ज्ञात हो कि द्विराष्ट्र सिद्धांत सर्वप्रथम हिंदू महासभा ने ही रखा था!
हालांकि विशाल भारत में कुछेक मुट्ठी भर लोग ही संघ/हिंदू महासभा के साथ कट्टर बनकर खड़े हुए
लेकिन इसके परिणामस्वरूप मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के जरिए पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग रख दी!

जिसे हिंदू महासभा और संघ ने भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि धर्म के आधार पर दो अलग राष्ट्रों के निर्माण की मांग उन्हीं की थी!

इसतरह भारत का विभाजन अमल में आया और उसका दंश आज तक भी और आने वाले कई दशकों तक भी हमें दर्द देता रहेगा!
ब्रिटिश अपनी साजिश में सफल रहे, आजादी के 70 वर्ष उपरांत और आने वाले कई दशकों के बाद भी भारत-पाकिस्तान आपसी रंजिश में ही इतना डूबे रहेंगे कि अमेरिका, यूरोप को चुनौती देने के काबिल नहीं बन सकेंगे!

निष्कर्ष इस प्रकार हम पाते हैं कि पराधीन भारत में छोटे और वर्ग विशेष पर आधारित दलों ने भारत की एकता को खंडित करके उसकी संप्रभूता को चोट दी!

यानि छोटे दल देश के लिए पूर्णत: नुकसानदेह सिद्ध हुए!

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