लुटेरे उद्योगपतियों के साथ खड़े होने वाले मोदी किसानों के साथ खड़े होने में क्यों डरते हैं ?

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि हिन्दुस्तान को बनाने में उद्योगपतियों की भी भूमिका होती है और उन्हें चोर लुटेरा कहना या अपमानित करना पूर्णतया गलत है।
    मोदीजी ने साढ़े चार साल बाद यह जवाब खोजा है कि वे उद्योगपतियों के साथ खुले में मिलते हैं। फोटो खींचाते हैं। उनकी नीयत साफ है। गांधी जी की तरह नीयत साफ है। गांधी जी भी बिड़ला जी के साथ जाकर रहते थे क्योंकि उनकी नीयत साफ थी। बिड़ला जी और अदानी जी और अंबानी जी की तुलना हो सकती है या नहीं हो सकती है इसका जवाब एक लाइन में नहीं दिया जा सकता है।
    कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा, “प्रधानमंत्री को ऐसे लोगों के साथ तस्वीर खिंचाने में कोई समस्या नहीं है जिन पर बैंकों को ठगने और एंटीगुआ, लंदन या शायद धरती से गायब होने का आरोप है, तो मैं उनकी सच्चाई और प्रतिष्ठा को ऐसे उद्योगपतियों को देने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मोदी की समझ पर छोड़ता हूं।”
    मोदीजी द्वारा खुद की तुलना महात्मा गांधी से कर ली “इससे ज्यादा चौंकाने वाला क्या होगा कि प्रधानमंत्री ने अपनी तुलना महात्मा गांधी से की।” वे उद्योगपति महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थे और उनका लक्ष्य भारत की स्वतंत्रता थी। ऐसे उद्योगपति नहीं जिन्होंने देश के बैंकिंग तंत्र को ठगकर जनता के हजारों करोड़ रुपये लेकर भाग गए

    सरकार की नीतियों को उद्योग के अनुकूल होना चाहिए, लेकिन सिर्फ कुछ उद्योगपतियों के अनुकूल नहीं होना चाहिए। पीएम को उद्योग के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, लेकिन सिर्फ कुछ उद्योगपतियों के हितों के साथ खड़ा होना चाहिए। कोई भी बता सकता है कि कौन से उद्योगपतियों को फायदा पहुंचा है।

    बहरहाल, यह बात छोड़कर यह पूछें कि एक निजी कंपनी को बिना अनुभव के आधार पर करोड़ों का यह कॉन्ट्रैक्ट क्यों दिया गया क्या इसलिए कि प्रधानमंत्री जैसा कहते हैं – उनके उद्योगपतियों से रिश्ते हैं और उनके मुताबिक उद्योगपति देश की तरक्की में बड़ी भूमिका अदा करते हैं…? क्या यह कॉन्ट्रैक्ट रिश्तों का खेल है…?
    सरकारें ऐसे खेल खेलती रहती हैं, इसका एक और सबूत पिछले दिनों तब दिखा, जब सर्वोत्कृष्ट संस्थानों के चयन में रिलायंस के जियो इंस्टीट्यूट को देश के गिने-चुने संस्थानों में शामिल किया गया. जब यह बात सामने आई कि जियो इंस्टीट्यूट तो अभी बना ही नहीं है, तब बताया गया कि उन्हें संभावनाशील संस्थानों की सूची में रखा गया है. ज़ाहिर है, यह भी अपनों के प्रति ममत्व का एक और उदाहरण है.
    लेकिन मामला सिर्फ नेताओं-उद्योगपतियों के रिश्तों का नहीं है, उस दृष्टि का भी है, जो प्रधानमंत्री की बात में दिखाई पड़ती है. वह इस बात को रेखांकित करते हैं कि देश के विकास में उद्योगपतियों का भी योगदान है. निश्चय ही यह योगदान होगा, लेकिन क्या भारत के उद्योगपति इस देश के गरीबों के मुकाबले देश का ज़्यादा भला कर रहे हैं…? बिलकुल नही वो भला सिर्फ अपना कर रहे है ये बात शायद हमारे प्रधानमंत्री जी को समझ नही आ रही है… या जानकर आंखे बंद किये हुए है बहरहाल अब देश का जो होना वो तो होके रहेगा। हर आंकड़ा इसी बात की तसदीक करता है कि इस देश में पिछले कुछ वक्त से अमीरों की अमीरी भी बढ़ती गई है और गरीबों की गरीबी भी. ज़ाहिर है, देश का जो भी विकास हुआ हो, उसके सबसे ज़्यादा फ़ायदे उद्योगपतियों ने लिए हैं. ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि इस देश की 73 फ़ीसदी दौलत पर बस एक फ़ीसदी आबादी का कब्ज़ा है. बीते साल यह कब्ज़ा 58 फ़ीसदी का था. इस एक साल में इस एक फ़ीसदी आबादी की दौलत 20 लाख करोड़ बढ़ गई।

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