प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के देहरादून आगमन से चार दिन पूर्व ही राज्य सरकार ने केन्द्र सरकार के कृषि बिल वापसी का अनुसरण करते हुए जान का बवाल बन चुके देवस्थानम बोर्ड को वापस लेने की घोषणा करते हुए तीर्थ-पुरोहितों के राज्य सरकार के प्रति पनप रहे असंतोष को समाप्त करने की कोशिश है। ये हिला की वापसी निश्चित तौर पर सरकार का हार है।
हालांकि पूर्व में माना जा रहा था कि राज्य सरकार को फजीहत से बचाने के लिए मोदी खुद इस बोर्ड को समाप्त करने की घोषणा कर तीर्थ-पुरोहितों को लुभाएंगे। लेकिन पूर्व में कई बार राज्य सरकार की वायदाखिलाफी के कारण इस बार तीर्थ पुरोहित मोदी के 4 दिसम्बर को प्रस्तावित देहरादून के व्यापक विरोध की घोषणा करके विरोध की पूरी तैयारी कर चुके थे। जिसके चलते सरकार को “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब की राह पर चलते हुए अंततः विवादों के पर्याय बन चुके देवस्थानम बोर्ड को तिलांजलि देने के लिए मजबूर होना पड़ा।
वर्ष 2020 में सरकार ने देवस्थानम प्रबंधन बोर्ड का गठन तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा किया था। उस समय भी तीर्थ पुरोहित, हकहकूकधारियों एवं विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सरकार के फैसले का कड़ा विरोध किया था। इसके बावजूद तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने फैसले से पीछे नहीं हटे। वहीं, गंगोत्री में पिछले साल भी निरंतर धरना होता रहा। केदारनाथ और बदरीनाध धाम में तो बोर्ड ने कार्यालय खोल दिए, लेकिन गंगोत्री में तीर्थ पुरोहितों के विरोध के चलते कार्यालय तक नहीं खोला जा सका।
गंगोत्री में कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज के दो बार पुतले भी जलाए गए। देवस्थानम बोर्ड भंग करने की मांग कर रहे चारधाम तीर्थ पुरोहित हक हकूकधारी महापंचायत ने 23 नवंबर को देहरादून में यमुना कालोनी स्थित कैबिनेट मंत्रियों के आवास का घेराव किया था। इस मौके पर धरना दिया गया था। आंदोलन के तहत 27 नवंबर को बोर्ड गठन के दो साल पूरे होने पर काला दिवस मनाया गया। इससे तहत देहरादून में सचिवालय कूच किया गया। अब आंदोलन को तेज करते हुए एक दिसंबर से चारों धामों के पूजा स्थल के साथ ही देहरादून में क्रमिक अनशन की चेतावनी दी थी।
उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन होने के बाद सत्ता संभालते ही पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने देवस्थानम बोर्ड के फैसले पर पुनर्विचार करने की बात कही थी। तीरथ सिंह रावत के बाद पुष्कर धामी सीएम बने और उन्होंने इस मामले में उच्चस्तरीय समिति भी गठित की। इसके अध्यक्ष भाजपा के वरिष्ठ नेता मनोहर कांत ध्यानी को बनाया गया था। जबकि तीर्थ पुरोहितो ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को अपने खून लिखे पत्र भेजकर बोर्ड भंग करने की गुहार लगाई थी। मनोहर कांत ध्यानी ने हाल में ही समिति की रिपोर्ट सीएम पुष्कर सिंह धामी को रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है। पांच नवंबर को पीएम नरेंद्र मोदी का केदारनाथ में दौरे से ऐन पहले नौ सदस्यों को नामित कर चारों धामों से तीर्थ पुरोहितों को खुश करने का प्रयास किया गया है।
इस समिति ने 28 नवंबर को अपनी दूसरी रिपोर्ट भी सीएम को सौंप दी। इसके बाद अगले दिन 29 नवंबर को मंत्रिमंडलीय उप समिति ने भी अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। इसके बाद जहां बकौल भाजपा ‘कुछ’ किसानों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार ने तीन तीन कृषि कानूनों को वापस लिया तो उत्तराखण्ड में ‘कुछ’ पुरोहितों के विरोध के चलते राज्य सरकार को देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला वापस लेना पड़ा। बोर्ड एक्ट को वापस लिए जाने की घोषणा के बाद अब इसे शीतकालीन सत्र में ही सरकार द्वारा वापस लेने की औपचारिकता पूरी की जाएगी।
सरकार के इस फैसले पर उत्तराखंड कांग्रेस के अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने कहा यह कांग्रेस के संघर्ष का है प्रमाण,भाजपा के तमाम गतिरोधों को दूर करते हुए जन संकल्प की जीत का प्रतीक हैं। यह जीत तीर्थ पुरोहितों, हक हकूक धारियों, कांग्रेस के संघर्ष की जीत है।
वहीं कांग्रेस नेता और पूर्व CM हरीश रावत ने कहा ये फैसला आने वाले चुनाव में हार से भयभीत सरकार का फैसला है। जिस दिन देवस्थानम बोर्ड का गठन किया गया था उस दिन ही कांग्रेस ने विधानसभा में और नेताओं ने बाहर इसका विरोध किया और कहा कि ये हमारी परंपरा और संस्कृति के खिलाफ़ है। उस समय सरकार अपने अंहकार में थी। जब उन्हें लगा कि इससे जनमत खिलाफ हो रहा है और सरकार को अपनी हार स्पष्ट दिखाई देने लगी तो उन्होंने देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला किया है।