देश भर में जारी लॉकाडाउन और कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की दिनोंदिन बढ़ती संख्या के बीच केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को खाली करने की योजना को लागू कर दिया है। आरबीआई से कर्ज लेने के नियमों में संशोधन कर सरकार ने इसका रास्ता निकाला है, जिसके बाद रिजर्व क ने 20 अप्रैल को केंद्र सरकार को दी जाने वाले कर्ज की रकम को करीब तीन गुना बढ़ाकर 2 लाख करोड़ कर दिया है। पहले यह सीमा 75,000 करोड़ थी।
ध्यान रहे की कोरोना महामारी से पहले ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर विफल साबित हुई हैं।
नोटबन्दी और बिना तैयारियों और कोई सोचविचार किए बिना लागू किए गए जीएसटी जैसी नीतियों के चलते पहले ही देश की अर्थव्यवसथा गर्त में पहुंच चुकी है। विकास दर लगातार नीचे जा रह है, रुपया दिनोंदिन कमजोर हो रहा है, उद्योग धंधे ठप हैं, बैंक दिवालिया होने के कगार पर हैं। इन हालात में रिजर्व बैंक से इतनी भारी रकम निकालने से देश महामंदी के गर्त में पहुंच सकता है। कल्पना कीजिए कि जब आरबीआई के ही पास पैसे नहीं होंगे तो देश की आर्थिक दिशा और दशा क्या होगी ?
सवाल यह उठना चाहिए कि आखिर सरकार को रिजर्व बैंक से इतनी भारी रकम निकालने की जरूरत क्या है? क्या मान लिया जाए कि देश पहली बार वित्तीय आपातकाल की तरफ बढ़ रहा है और सरकार का आरबीआई के साथ मिलकर उठाया गया यह कदम इस आपातकाल की आहट है?
यहां यह जानना जरूरी है कि आरबीआई से रकम निकालने के नियम में किस प्रकार की तब्दीली की गई है। गौरतलब है कि आरबीआई हमेश से ही सरकार को केवल सरप्लस फंड ही देता आया है। लेकिन यह पहली बार है जब मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान सरकार द्वारा सरप्लस से अधिक रकम निकालने जैसा काम किया जा रहा है। और इसी के तहत आरबीआई से अधिक से अधिक रकम प्राप्त करने के लिए नियमों में संशोधन किया गया है।
ध्यान रहे कि इससे पहले सरकार रिजर्व बैंक से कर्ज के रूप में केवल 75 हजार करोड़ ले सकती थी, लेकिन मौजूदा सरकार ने 1 अप्रैल 2020 को इसे संशोधित करते हुए रकम निकालने की सीमा को बढ़ाकर 1 लाख 20 हजार करोड़ कर दिया और अब 20 अप्रैल 2020 को उसे फिर से बढ़ाकर 2 लाख करोड़ कर दिया है।
इससे पहले भी वर्ष 2019 में भारतीय रिज़र्व बैंक ने मोदी सरकार को 24.8 अरब डॉलर यानी लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपए लाभांश और सरप्लस पूंजी के तौर पर ट्रांसफर कर दिया था। और इस प्रकार आरबीआई की 2018 और 2019 की सारी कमाई सरकार को दे दी थी।
आरबीआई से 1.75 लाख करोड़ सरकार को दिए जाने की चौतरफा आलोचना हुई थी और इस कदम को आरबीआई की स्वायत्तता खत्म करने का मुद्दा बताया गया था। उसी दौरान आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल समेत कई बड़े आरबीआई अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया था। फाइनेंशियल टाइम्स में उस दौर में प्रकाशित एक खबर में कनाडा की कार्लटन यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर विवेक दहेजिया लिखा था कि आरबीआई अपनी कार्यकारी स्वायत्तता खो रहा है और सरकार के लालच को पूरा करने का ज़रिया बनता जा रहा है।” उन्होंने यह भी कहा था कि ”इससे रिज़र्व बैंक की विश्वसनीयता कमज़ोर होगी।”
उसी दौरान आरबीआई के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सरकार को चेताते हुए कहा था कि “सरकार ने आरबीआई में नीतिगत स्तर पर हस्तक्षेप बढ़ाया तो इसके बहुत बुरे नतीजे होंगे।” विरल आचार्य ने कहा था कि, “जो सरकारें अपने केंद्रीय बैंकों की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करतीं, उन्हें देर-सबेर वित्तीय बाज़ारों के ग़ुस्से का सामना करना ही पड़ता है।”
अब जबकि सरकार ने आरबीआई से अधिक से अधिक रकम निकालने की नई स्कीम को तैयार कर लिया है तो क्या अब यह मान लिया जाए कि देश के केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता समाप्त हो चुकी है? अगर ऐसा है तो संकेत यही हैं कि देश में वित्तीय आपातकाल के हालात बन चुके हैं।