महामारी से बड़ा खतरा है भरोसे का टूटना
भयावह दौर को भुलाना मुश्किल
कोराना कहर बरपाते हुए चल ही रहा है तो लॉक डॉउन भी पिछले लगभग दो महीने से चल ही रहा है लेकिन इस सबसे भयावह है लोगो का बेरोजगार और बेछत हो जाना। बिना तैयारी के लॉक डॉउन लागू करने के इन खतरों का लगभग सबको अनुमान था। अनुमान के मुताबिक जो होना था उससे कहीं अधिक हो ही नहीं गया वरन लोगों की जिंदगी दाव पर लग गई। 400 के करीब लोग भूख प्यास और दुर्घटना में मारे गए और जो बचे हैं वे भी जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में गरीबों के घर के मुखिया अकेले लड़ रहे होते तो भी गनीमत थी लेकिन महिलाए, बच्चे, बुजुर्ग और घर के ज्यादातर सदस्य इस लड़ाई से जूझ रहे हैं। महानगरों के रूखे स्वभाव और आफत ने लोगो को सड़क पर, राज्य, जिले और थानों की सीमाओं पर लाकर खड़ा कर दिया है। कवार्नटीन सेंटर डिटेंशन सेंटर में तब्दील हैं और सरकारों के मुखियाओं के नौसिखिए नियम, फरमान और फैसले उन्हें और भी मुसीबत में डाल रहे हैं। कई कई दिन के भूखे प्यासे लोग बन्दी बनकर तड़प रहे हैं। गैर सरकारी संगठनों और मानवतावादियों की कोशिशें भी छोटी पड़ती जा रही है। पक्ष विपक्ष के लोग इन बेबस और लाचार लोगों को विलेन दिखाई पड़ रहे हैं। कुछ घर पहुंच गए हैं, कुछ घरों के करीब है और बहुत सारे रास्ते में खुली सड़क और डिटेंशन सेंटर सरीखी हवालात में कैद हैं।
हुकूमत का इन करोड़ों तड़पते लोगों के लिए कोई ठोस उपाय नहीं कर पाना सबसे ज्यादा अखर रहा है। भला साधन सम्पन्न हुकूमत दो महीने में भी मजदूरों के लिए कोई राहत ना ढूंढ़ पाए, ये कैसे हो सकता है। देश के प्रधानमंत्री कई बार देश को संबोधित करके बहुत सारी ताकीद कर चुके हैं और आखिर में संकट को अवसर में बदलने का उनका पैकेज आया है। इस पैकेज में कोई खाना, परिवहन की व्यवस्था, दवा गोली, नकद मदद नहीं है, केवल योजनाएं हैं। ये योजना भी इन गरीबों के हित में प्रतीत नहीं होती वरन बड़े वर्गों और उद्योगों की मदद के लिए ही बनी प्रतीत होती हैं। जिस कारण बेरुआ बीरान हो चुकी मजदूरों की जिंदगी को कोई आशा की किरण दिखाई नहीं दे रही है। अभी तो सब लोग अपने गांव और घर भी नहीं पहुंचे है, वहां पहुंच कर उनकी जिंदगी किस और करवट लेगी इसका अनुमान सुखद नहीं है। ऐसे में करोड़ों लोगो के सामने अंधकार ही अंधकार है। बस घर पहुंचे तो वे अगली मुसीबत का सामना करने की तैयारी करें। लेकिन ये तैयारी भी बकौल प्रधानमन्त्री आत्म निर्भर बनकर इन मजदूरों को ही करनी है। करोना, लॉक डॉउन,रोजगार का छिनना, सड़क पर लंबी दूरी तय करने में पांव में पड़ गए फफोलों से भी बड़ा है भरोसे का टूटना। सच में मजदूरों का भरोसा टूट चुका है। भरोसा उनसे जहां वे काम करते थे, भरोसा उस हुकूमत से जिससे उसे उम्मीद थी कि वह हुकूमत उनकी जिंदगी को पटरी पर के आएगी। दुनिया के कुछ मुल्कों ने अपने नागरिकों की जिंदगी पटरी पर लाने के ठोस प्रयास किए हैं लेकिन अपने भारत में ये नहीं हो पाया है। यहां तो पैकेज के नाम पर झूठी तसल्ली भी नहीं है। ऐसे में हुकूमत के प्रति गरीब मजदूर का भरोसा टूट चुका है। सड़क पर इस टूटे भरोसे की मजदूरों की तरफ से प्रतिक्रियाएं भी अा रही हैं। बेबस लोग अब कभी शहर वापिस लौट के आने से साफ इंकार कर रहे हैं तो देश के कई हिस्सों में शांत रहने वाले और तमाम दमन व शोषण झेलकर भी उफ्फ ना करने वाले मजदूरों ने सड़क जाम तक की हैं। गुजरात में एक सरकार का पक्ष करने वाले चैनल के पत्रकार के हुकूमत के पक्ष में पूछे गए सवाल पर पत्रकार का सिर फोड़ दिया।
किसी भी देश के नागरिकों का हुकूमत, मानवता और प्रकृति से भरोसा टूटना बहुत खतरनाक होता है। कई देशों में जब जब लोगों का भरोसा टूटा है तो वहा हिंसा, आगजनी, छीना झपटी और लूटपाट अराजकता की स्थितियां पैदा हो गई है। भारत के ये बेबस मजदूर कहीं उसी दिशा की तरफ तो नहीं बढ़ रहे हैं? क्योंकि बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था के चलते करोड़ों लोगो के भूखे मरने के हालात पैदा होने का अंदेशा है इसलिए इस भरोसा टूटने के बाद पैदा होने वाले खतरे को बहुत खतरनाक समझना चाहिए। हुकूमत हालांकि अभी भी मुतमइन नजर आ रही है कि सब कुछ वह घोषणाओं और मीडिया के जरिए व्यवस्थित कर लेगी लेकिन हुकूमत को इस भ्रम से बाहर आकर टूटे भरोसे को जोड़ने का काम करना चाहिए, क्योंकि यदि ये नहीं हुआ तो खतरा हुकूमत और देश का बहुत बड़ा नुकसान कर सकता है।
सत्यपाल चौधरी